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लाल धब्बों से दागदार फाइलें: आदत या गैर-जिम्मेदारी?

लाल धब्बों से दागदार फाइलें: आदत या गैर-जिम्मेदारी?

न्यायिक मर्यादा बनाम व्यक्तिगत लत

इलाहाबाद हाईकोर्ट में हाल ही में जो दृश्य सामने आया, उसने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि छोटी-सी व्यक्तिगत लत किस तरह बड़े संस्थानों की गरिमा को प्रभावित कर सकती है। जज साहब की टेबल पर रखी फाइलों पर गुटखे और पान के लाल धब्बे साफ दिख रहे थे। ये धब्बे सिर्फ कागज़ की शोभा नहीं बिगाड़ते, बल्कि पूरी न्यायिक प्रणाली की शुचिता पर भी सवाल खड़े करते हैं।

आदत की जड़ें समाज में गहरी

भारत में पान और गुटखा सिर्फ स्वाद नहीं, बल्कि आदत बन चुके हैं। दफ्तरों से लेकर अदालतों तक, रेलवे प्लेटफॉर्म से लेकर सरकारी भवनों तक – कहीं भी साफ दीवार ढूँढना मुश्किल है। लाल छींटों से रंगी इमारतें और दागदार फर्श यह बताने के लिए काफी हैं कि यह लत किस हद तक फैली हुई है। कोर्ट की फाइलों तक इसका असर पहुँचना कोई आश्चर्य की बात नहीं।

व्यक्तिगत लापरवाही, संस्थागत शर्मिंदगी

पन्ना पलटने के लिए थूक का इस्तेमाल करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन जब यह थूक गुटखा या पान से मिला हो, तो कागज़ स्थायी रूप से खराब हो जाता है। अदालत की फाइलें सिर्फ कागज़ के बंडल नहीं होतीं; वे इतिहास और न्याय की धरोहर होती हैं। उन पर दाग लगना व्यक्तिगत लापरवाही से कहीं अधिक, संस्थागत शर्मिंदगी बन जाता है।

समाधान कहाँ है?

1. सख़्ती – अदालतों और सरकारी दफ्तरों में गुटखा-पान पूरी तरह प्रतिबंधित हो और नियम तोड़ने वालों पर जुर्माना लगे।

2. जागरूकता – कर्मचारियों और वकीलों को साफ-सफाई और दस्तावेज़ों की महत्ता के बारे में नियमित रूप से अवगत कराया जाए।

3. विकल्प – थूक से पन्ने पलटने की आदत छोड़ने के लिए फिंगर मॉइस्चर पैड्स या अन्य सुरक्षित साधन उपलब्ध कराए जाएँ।

न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता केवल बड़े फैसलों या आदेशों से नहीं, बल्कि उन बारीक आदतों से भी जुड़ी है जो कोर्ट के भीतर दिखाई देती हैं। गुटखा और पान की यह लत जहाँ स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाती है, वहीं संस्थानों की साख को भी धूमिल करती है। लाल धब्बों से दागी हुई फाइलें हमें यह याद दिलाती हैं कि व्यक्तिगत जिम्मेदारी ही सामूहिक गरिमा की असली नींव है।

 

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